नई दिल्ली। राजनीति का मैदान भी किसी अन्य क्षेत्र की तरह अनिश्चितताओं से भरा होता है। यहाँ एक साल किसी के लिए सुनहरी उपलब्धियां लेकर आता है, तो किसी के लिए भारी नुकसान का सबब बन जाता है। साल 2025 भारतीय राजनीति के कई बड़े चेहरों के लिए अग्निपरीक्षा की तरह रहा, जहाँ सत्ता के समीकरणों ने कई दिग्गजों को अर्श से फर्श पर ला खड़ा किया। सत्ता की राजनीति में सफलता का पैमाना केवल चुनावी जीत होती है, और जब यह हाथ से फिसलती है, तो नेतृत्व और रणनीति दोनों पर गंभीर सवाल खड़े होने लगते हैं।
केजरीवाल की दिल्ली में विदाई
आम आदमी पार्टी और इसके संयोजक अरविंद केजरीवाल के लिए साल 2025 किसी बड़े झटके से कम नहीं रहा। दिल्ली विधानसभा चुनावों में जनता ने ऐसा जनादेश दिया कि खुद अरविंद केजरीवाल अपनी सीट भी नहीं बचा सके। उनके सबसे भरोसेमंद साथी मनीष सिसोदिया, जिनका चुनावी क्षेत्र पटपड़गंज से बदलकर जंगपुरा किया गया था, उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा। दिल्ली की सत्ता हाथ से निकलने के बाद केजरीवाल ने पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों पर ध्यान केंद्रित किया। पंजाब और गुजरात के उपचुनावों में मिली छोटी जीत ने उनके मनोबल को सहारा तो दिया है, लेकिन राष्ट्रीय राजधानी में मिली शिकस्त का दर्द केवल सत्ता में वापसी से ही कम हो सकता है।
बिहार में तेजस्वी का संघर्ष
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 तेजस्वी यादव के लिए करो या मरो की स्थिति वाला था। अपने पिता लालू यादव के मार्गदर्शन और सक्रिय उपस्थिति के बावजूद तेजस्वी उम्मीदों के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर सके। जहाँ वे मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे थे, वहीं नतीजों ने उन्हें विपक्ष की कतार में भी काफी पीछे धकेल दिया। आरजेडी को महज 25 सीटें मिलीं, जो नेता प्रतिपक्ष का पद बचाने के लिए पर्याप्त थीं। हार के बाद सहयोगी दलों या पारिवारिक सदस्यों पर जिम्मेदारी डालना आसान है, लेकिन एक नेतृत्वकर्ता के तौर पर हार का सबसे बड़ा बोझ उन्हीं के कंधों पर है।
राहुल गांधी की चुनौतियां और वोट-चोरी मुहिम
कांग्रेस नेता राहुल गांधी के लिए दिल्ली और बिहार दोनों राज्यों के नतीजे निराशाजनक रहे। दिल्ली में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुल सका, जबकि बिहार में पार्टी की स्थिति ओवैसी की पार्टी के बराबर सिमट कर रह गई। इन चुनावों के बाद राहुल गांधी ने वोट-चोरी के खिलाफ एक नया अभियान शुरू किया है, जिसे वोट चोर, गद्दी छोड़ का नारा दिया गया है। हालाँकि, उनकी वोटर अधिकार यात्रा जमीन पर वोटर्स को आकर्षित करने में नाकाम रही।
प्रशांत किशोर की जन सुराज और मुकेश सहनी का शून्य
रणनीतिकार से राजनेता बने प्रशांत किशोर के लिए 2025 एक कड़ा सबक लेकर आया। उनकी जन सुराज पार्टी ने बड़े स्तर पर चुनाव लड़ा, लेकिन एक भी सीट जीतने में नाकाम रही। स्वयं प्रशांत किशोर ने इस हार की जिम्मेदारी ली, लेकिन उनकी भविष्य की रणनीति अब भी रहस्य बनी हुई है। वहीं, विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी, जिन्हें महागठबंधन की ओर से उपमुख्यमंत्री का चेहरा बनाया गया था, वे शून्य पर सिमट गए। 2020 में चार सीटें जीतने वाले सहनी के लिए यह राजनीतिक अस्तित्व का संकट बन गया है।
दूसरी ओर, तेज प्रताप यादव जैसे नेताओं के लिए पारिवारिक अंतर्कलह और पार्टी से अलग राह चुनना भारी पड़ा। राजनीति के इस दौर में पुष्पम प्रिया चौधरी जैसे चेहरे भी नजर आए, जो पांच साल के संघर्ष के बाद भी खुद को उसी मुकाम पर खड़ा पा रही हैं जहाँ से उन्होंने शुरुआत की थी। 2025 का यह चुनावी साल स्पष्ट करता है कि राजनीति में पुराने समीकरणों और नारों से ज्यादा जनता की नब्ज पहचानना अनिवार्य है।

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