नई दिल्ली । भारतीय इतिहास में सिक्कों का प्रचलन केवल लेन-देन तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह सत्ता, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और आम लोगों की जिंदगी से गहराई से जुड़ा रहा है। पुराने दौर में एक रुपये का मतलब था 16 आना और एक आना चार पैसे के बराबर होता था, यानी कुल 64 पैसे। दूध, सब्जी, चाय या बस का टिकट हर चीज आने और पैसों में खरीदी जाती थी। दुकानों पर हिसाब-किताब सिक्कों की खनक के साथ होता था और दो आने की मिठाई या चार पैसे की चाय जैसे जुमले आम बोलचाल का हिस्सा थे। भारत में सिक्कों की कहानी हजारों साल पुरानी है। मौर्य काल में चांदी के पंचमार्क सिक्कों का प्रचलन था, जिन पर अलग-अलग प्रतीक ठोके जाते थे। गुप्त काल में सोने के भव्य सिक्के ढाले गए, जिन पर राजाओं की आकृतियां और धार्मिक चिन्ह अंकित होते थे। ये सिक्के न केवल मुद्रा थे, बल्कि समृद्धि और शक्ति के प्रतीक भी माने जाते थे। आगे चलकर मुगल काल में रुपये की नींव पड़ी। 16वीं सदी में शेरशाह सूरी ने चांदी का ‘रुपया’ शुरू किया, जिसने भारतीय मुद्रा व्यवस्था को एक ठोस आधार दिया। अकबर के समय सोने की मोहर, चांदी के रुपये और तांबे के दाम प्रचलित हुए, जिन पर फारसी शिलालेख होते थे। ब्रिटिश शासन के दौरान 1835 में एकसमान मुद्रा प्रणाली लागू की गई, जिसमें एक रुपया 16 आने और 64 पैसों के बराबर तय हुआ।
यही व्यवस्था लंबे समय तक देशभर में चलती रही। आजादी के बाद भी भारत ने तुरंत दशमलव प्रणाली नहीं अपनाई और कुछ वर्षों तक आना-पैसा चलता रहा। हालांकि 1957 में देश ने डेसिमल सिस्टम अपनाया और एक रुपया 100 नए पैसों के बराबर हो गया। धीरे-धीरे आना, अधन्ना और चवन्नी जैसे शब्द इतिहास में दर्ज होते चले गए। समय के साथ सिक्कों का आकार और धातु भी बदलती रही। चांदी और तांबे की जगह स्टील के सिक्कों ने ले ली और महंगाई के कारण छोटे मूल्य के सिक्के चलन से बाहर होते गए।

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